Mar 16, 20228 min

महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय: दीक्षांत भाषण

Updated: Mar 22, 2022

मेरे प्यारे बच्चों और युवा मित्रों, विश्वविद्यालय के कुलाधिपति और प्रदेश के महामहिम राज्यपाल श्री मंगुभाई छगनभाई पटेल जी, माननीय कुलपति भाई टी. आर. थापक जी, भाई डॉ मोहन यादव जी, गोपाल भार्गव जी, वी.डी शर्मा जी, समस्त विश्वविद्यालय परिवार, बहनों और भाइयों!

मैं सबसे पहले बुंदेलखंड की इस वीरभूमि, पुण्यभूमि और पितृभूमि को प्रणाम करता हूं। मध्य प्रदेश और खासकर बुंदेलखंड आना मेरे लिए अपने घर में आने जैसा है। इसलिए मैं आपसे जो भी बातें कर रहा हूं, वह अपने परिवार मैं बैठकर बात करने जैसा है।

मेरी रगों में भी बुंदेलखंड की मिट्टी,पानी, हवा और अनाज खून बनकर बह रहे हैं। मेरी सांसों में बुंदेलखंड का संगीत बसता है। मेरे पुरखे यहीं, टीकमगढ़, झांसी, दतिया, ओरछा और छतरपुर के इलाकों में जन्मे और परलोक सिधारे। मैंने अपनी मां और भाभी की गोद में रामराजा की आरती और भजनों के साथ-साथ, लाला हरदौलजू के उज्जवल चरित्र के लोकगीत और महाराजा छत्रसाल की शौर्य गाथाएं सुनी हैं। महाकवि भूषण के कुछ दोहे तो अब तक याद हैं;

छत्ता तोरे राज में धक-धक धरती होय

जित जित घोड़ा मुख करै, उत उत फत्ते होय।

और राव राजा एक, मन में न ल्यायों अब

साहू कों सराहों, कै सराहों छत्रसाल कों।

आप सौभाग्यशाली हैं कि इसी धरती पर जन्मे हैं और महाराजा छत्रसाल के नाम पर स्थापित विश्वविद्यालय से डिग्रियां ले रहे हैं, अथवा यहां पढ़ रहे हैं, या पढ़ा रहे हैं।

मैं उन सभी युवा मित्रों को बधाई देना चाहता हूं जिन्होंने अपनी प्रतिभा और परिश्रम से विश्वविद्यालय से अलग-अलग डिग्रियां हासिल की हैं। आपके हाथों में रखी ये उपाधियां सिर्फ कागज पर छपे प्रमाणपत्र नहीं हैं जो भविष्य में नौकरी, कैरियर और आजीविका में सहायक होंगे। यह डिग्री आपके माता-पिता की तपस्या और सपनों का एक मीठा फल है। इसलिए मैं उन्हें प्रणाम करता हूं। इस कागज पर छपे अक्षरों में आपको उंगली पकड़कर अ,आ,इ,ई….. लिखना सिखाने वाले पहले शिक्षक से लगाकर इस विश्वविद्यालय के प्रत्येक प्राध्यापक का परिश्रम, लगन और आशीर्वाद अंकित है। मैं उन्हें भी हृदय से साधुवाद देना चाहता हूं।

इनके अलावा आपके जन्म से लेकर अब तक आप को जीवित रखने, पालन-पोषण करने और डिग्री हाथ में लेने के लिए योग्य बनाने में अनगिनत लोगों का योगदान रहा है। आप जिनका उगाया हुआ अन्न खाते हैं, जिनके हाथों से बनाए मकानों में रहते हैं, जिनके बने हुए कपड़े-जूते आदि पहनते हैं, जो लोग आपके लिए सफ़ाई करते हैं, या जो आपकी दवा-दारू और सुरक्षा का इंतजाम करते हैं और आपको एक जगह से दूसरी जगह ले जाते हैं, मैं उन सभी को नमन करता हूं। इसलिए आपसे भी आग्रह करता हूं कि अपनी खुशी और गर्व के इस मौके पर उनके प्रति कृतज्ञता जताने के लिए खड़े होकर ज़ोरदार तालियां बजाइए।

आज का दिन आपके जीवन के सबसे महत्वपूर्ण दिनों में से एक है। आज से आपको एक नई पहचान मिल रही है। यह एक सुंदर सुघड़ मूर्ति की पहचान है, जल से भरे हुए घड़े की पहचान है, चमचमाते स्वर्ण आभूषण की पहचान है, और एक जलते हुए दीये की पहचान है। जब आपने शिक्षा प्रारंभ की थी, तब आप एक चट्टान में छुपे पड़े थे। आपके गुरु ने पत्थर के फालतू टुकड़ों को काट-छांटकर अलग कर दिया, आपको कुशलता से तराशा जिससे आपका यह स्वरूप निकलकर आया। पत्थर के वे टुकड़े शायद अज्ञान, आलस्य, अहंकार और आत्महीनता के थे। आप सूखी मिटटी थे। गुरु ने ज्ञान के जल से उस मिट्टी को मथकर इतना सुंदर घड़ा बना दिया जिसमें भरे हुए ज्ञान के जल से न जाने कितने लोगों की प्यास बुझ सकेगी। सोना तो आप हमेशा से थे, लेकिन धरती के नीचे खदानों में मिट्टी और रेत में छुपे हुए थे, जिसे तपा-तपाकर शुद्ध धातु में और फिर अमूल्य स्वर्ण आभूषणों में बदल दिया गया। आप अग्नि तो पहले भी थे, लेकिन तेल और बाती के भीतर कहीं छुपे बैठे थे। अब ज्ञान की चिंगारी से प्रज्वलित होकर आप दीया बनकर जगमगाएँगे।

नौजवान साथियों, आज से आप एक नई जिंदगी की शुरुआत करने जा रहे हैं। दुनिया तो वही है, लेकिन उसमें आपकी भूमिका नई होने जा रही है। हर नयी पहचान और उपलब्धि नयी संभावनाओं के द्वार खोलती है लेकिन चुनौतियाँ भी साथ लाती है। नए अधिकारों के साथ नए कर्तव्य और उत्तरदायित्व आते हैं। ऐसी जिम्मेदारियां हमारे खुद के प्रति, परिवार के प्रति तथा समाज, राष्ट्र और संपूर्ण मानवता के प्रति होती हैं। जो नौजवान ऐसी जिम्मेदारियों को ईमानदारी और कुशलता से निभाता है, वह अपने जीवन को सार्थक बनाने के साथ-साथ पूरी मानवता की बेहतरी में योगदान करता है।

मैं बच्चों और युवाओं से बातचीत करते वक्त अक्सर 3-डी का जिक्र करता हूं। चौंकिए मत। यह 3-डी चित्र नहीं, मंत्र है, जो मैंने अपने जीवन के अनुभवों से सीखा है। इस मंत्र का पहला डी है ‘ड्रीम’ यानी सपने देखिए। मैं उस सपने की बात नहीं कर रहा हूं जो नींद में बिना बुलाए आकर आपको पकड़ ले और जहां चाहे, ले जाए। बल्कि उस सपने की बात कर रहा हूं जिसे आप जागते हुए खुली आंखों से पकड़कर थाम लें और जिसकी ऊर्जा और उजाले से धरती पर पैर रखे हुए आसमान के सितारों को मुट्ठी में कैद कर सकें।

हमारे आसपास की हर चीज, जैसे यह भवन, उसमें जलती हुई बिजली, चलते हुए पंखे, आपके हाथों के मोबाइल फोन, पहने हुए जूते, कपड़े, यहां तक क़ि कानून, संविधान और शासन व्यवस्था जैसी हर चीज कभी किसी न किसी का सपना थी। सपनों में से संसार जन्मता है। इस बात से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता कि आप अमीर हैं या गरीब, स्त्री हैं या पुरुष। दुनिया को बदलने वाले सपने दौलत से नहीं, दिल और दिमाग से पूरे किए जाते हैं।

मेरे पिताजी मध्य प्रदेश पुलिस के एक साधारण सिपाही थे। उनकी मृत्यु जब हुई तब मेरी उम्र मात्र 17 साल थी। मेरी मां लिखना-पढ़ना नहीं जानती थीं, परंतु उन्होंने अपनी एकमात्र बेटी और चारों बेटों को अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलाने में कोई कसर नहीं रखी। मैं खपरैल के घर में जन्मा और पला-बढ़ा। उसमें हर बरसात में टूटे हुए कवेलुओं से पानी टपकता था। कई बार हमें अपने कमरों का सामान और बिस्तर इधर-उधर खिसकाते हुए रातें गुजारनी पड़ती थीं। हम घर के सामने की संकरी गली में बरसात से बहते नाले में तैरना और बाकी दिनों में गिल्ली-डंडा और कबड्डी खेलना सीखते थे। मेरे भाई, भतीजों और मैंने कभी नए ऊनी कपड़े सिलवाकर नहीं पहने। हम हमेशा भोपाल के पुराने कपड़ों के एक बाज़ार से ख़रीदारी करते थे। मेरी इस पृष्ठभूमि पर मुझे गर्व है क्योंकि उसी में से मेरे सपने जन्मे थे।

आप सौभाग्यशाली हैं जिन्हें सपने देखने की आजादी है। यह एक ईश्वरीय वरदान है, इसका पूरा इस्तेमाल कीजिए। आप छोटे-छोटे सपने क्यों देखते हैं? बड़े से बड़ा सपना देखिए। नौकरियां मांगने वालों की कतार में खड़े होने के बजाय रोजगार देने वाले बनने का सपना देखिए। काउन्सलर या एमएलए का ही क्यों, प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति बनने का सपना देखिए। इतिहास पढ़ने और लिखने का नहीं, इतिहास रचने का सपना देखिए। लेकिन याद रखिए सिर्फ खुद के लिए सपना देखने वाले भले ही कितनी भी तरक्की क्यों न कर लें, इतिहास में मानवता के प्रेरणा स्तंभ वही बनते हैं, जो दूसरों की भलाई का सपना संजोते हैं।

इन सपनों को पूरा करने के लिए दूसरा ‘डी’ भी बहुत ज़रूरी है। यह ‘डी’ है ‘डिस्कवर’ यानी, खुद के भीतर छुपी अनंत संभावनाओं और शक्तियों को खोजना और उनका उपयोग करना। याद रहे, हम उस भारत माता की संतानें हैं, जहां उपनिषद का ऋषि उद्घोष करता है, “सोsहम् ब्रह्मास्मि” और आचार्य शंकर कहते हैं- “न मे द्वेषरागौ, न मे लोभ मोहौ, मदौ नैव मे मात्सर्यभावः,

न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्षः,चिदानंद रूपः शिवोsहम् शिवोsहम्”।

मनुष्य की पहचान की इतनी उत्कृष्टतम अभिव्यक्ति और क्या हो सकती है? यही पहचान हमें जात-पाँत, मत-मज़हबों और संप्रदायों आदि के भेदभाव से ऊपर उठा देती है और न केवल मनुष्यों, बल्कि पशु-पक्षियों, पहाड़ों-नदियों, जंगलों-वनस्पतियों आदि सभी को एक परिवार मानने की प्रेरणा देती है। यही खोज अहंकार और हीनभावनाओं से मुक्त करके आत्मविश्वास और आत्मसम्मान से भरती है। और हमें हमारे भीतर बसे करुणा के सागर से मिला देती है।

अपने प्राइमरी स्कूल के पहले दिन ही मेरे भीतर खुद को पहचानने की जद्दोजहद शुरू हो गई थी। तब मैं लगभग 5 साल का था। वह सरकारी स्कूल जर्जर डेढ़ मंजिला मकान में चलता था। उस दिन मेरी नजर दरवाजे के बाहर बैठकर जूता पॉलिश कर रहे एक मोची बच्चे पर पड़ी। उसकी उम्र लगभग मेरे बराबर ही थी। यह देखकर मुझे बहुत बुरा लगा। मैंने अपने अध्यापक से पूछा कि जब हम सब बच्चे क्लास में बैठे हैं तो वह बच्चा बाहर क्यों हैं? उन्होंने समझाने की कोशिश की कि यह कोई अजूबी बात नहीं है। गरीबों के बच्चे इसी तरह से काम करते हैं। मेरे घरवालों और दोस्तों ने भी बाद में यही कहा। लेकिन मुझे वह बात जँची नहीं। एक दिन मैंने हिम्मत करके उस बच्चे और साथ में काम कर रहे हो उसके पिता से पूछ लिया।

बच्चा तो शरमाते हुए सिर झुकाकर बैठा रहा, लेकिन उसका पिता हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और बोला, “बाबूजी, मैंने यह बात कभी नहीं सोची न ही मुझसे किसी ने कभी पूछा। मेरे बाप दादा और मैं बचपन से यही काम करते थे अब मेरा बेटा कर रहा है।” फिर कुछ और रुकने के बाद वह सूनी और निराश आंखों से झांकता हुआ बोला, “बाबूजी स्कूल जाने के लिए तो आप लोग हैं, हम तो यही काम करने के लिए पैदा होते हैं।” मैं दुख और गुस्से के मारे रोने लगा। लेकिन मेरे मन के भीतर गहराई में एक सवाल की चिंगारी सुलग उठी। अगर मैं आजादी के साथ स्कूल जाता हूं तो यही सिद्धांत और व्यवस्था उस जैसे सभी बच्चों के लिए क्यों नहीं? इसी चिंगारी की अग्नि ने 40-45 साल पहले भारत में और इसके बाद धीरे-धीरे पूरी दुनिया में बाल मजदूरी का अंत करने का महायज्ञ शुरू करा दिया। परिणाम आप सबके सामने है। ऋग्वेद में कहा है, “अग्निनाम् अग्निः समिध्यते।”

अंतर्निहित शक्तियों के साथ-साथ बाहर की सम्भावनाओं की तलाश करते रहना भी उतना ही ज़रूरी है। सरकारी, प्राइवेट, सामाजिक, शैक्षणिक और व्यापारिक आदि क्षेत्रों के नए-नए अवसर निकलते हैं। उनको पकड़ने के लिए तैयार रहना चाहिए। हम इंटरनेट, सूचना तकनीक और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के युग में जी रहे हैं। हमारे नौजवान अक्सर इनका उपयोग मनोरंजन, दोस्तियां निभाने, मोहब्बतों की क़समें-वादे, प्यार-वफ़ा की बातें करने या आपसी घृणा और वैमनस्य फैलाने वाले मैसेजों को फ़ॉरवड करने के लिए ही करते हैं। अरे भई, व्हाट्सएप, फेसबुक, इंस्टाग्राम, यूट्यूब आदि के अलावा इंटरनेट का संसार बहुत बड़ा है। इनका भरपूर इस्तेमाल करते हुए न केवल आजीविका के अवसर तलाशे जा सकते हैं, बल्कि खुद की और देश की तरक्की करने के उपाय भी खोजे जा सकते हैं।

साथियों, अगर आपके पास एक बड़ा और अच्छा सपना है, आपने अपनी क्षमताओं और योग्यताओं की पहचान कर ली है और बाहर के अवसर भी ढूंढ निकाले हैं, तो फिर किस बात का इंतजार है? इसीलिए 3 डी मंत्र का आखिरी डी है- ‘डू’, यानी करो। हम क्या बन सकते हैं वह तो हमारे हाथ में नहीं है, लेकिन हम क्या कर सकते हैं, यह पूरी तरह हमारे वश में हैं क्योंकि कुछ बन जाना एक परिणाम है और करते रहना कर्म। इसीलिए गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है, “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।”

मित्रों! हर किसी से सीख ली जा सकती है और प्रेरणा भी, लेकिन यह मत भूलिए कि आपका हीरो आपके अंदर है। आज आपकी कहानी आप खुद रच रहे हैं। वही कहानी कल भारत की कहानी बनेगी। यह आप पर निर्भर करता है कि उस कहानी में अपना किरदार पीड़ित, दयनीय, शिकायतें करते रहने वाले या दूसरों के पिछलग्गू का बनाए रखते हैं या कहानी के हीरो का। याद रखिए, आप भारत माता के सिंह सपूत हैं। समस्याएं कितनी भी मुश्किल और बड़ी क्यों न हों, भारत समाधानों की जन्मभूमि है और आप उन्हीं में से एक समाधान हैं। आप सभी को मेरी बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

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