हजार समाधानों का जनक हिन्दुस्तान
केलाश सत्यार्थी, नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित समाज सुधारक
आज देश 79वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है। लंबे संघर्ष और अनगिनत बलिदानों के बाद हमें यह आज़ादी मिली जिसकी दुनिया के अलग-अलग देशों के स्वतंत्रता संघर्षों की रूढ़ीनताओं की तुलना में नहीं, बल्कि बिलकुल भी अलग-अलग रूप, जिसमें आधार वहां की संस्कृति, समाज और इतिहास के मूल्य रहे हैं।
भारत की आज़ादी के संघर्ष की खोज सद्भावना, मानवीय व आध्यात्मिक मूल्यों के ले कर समानता और न्याय के वैदिक दर्शन तक फैली हुई है, जो उसे अद्वितीय बनाती है। एक ओर, गांधीजी शांति, सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों के जरिए हमें आज़ादी के रास्ते पर बढ़ते गए तथा नवाचार था। वह समाज में फैली हर तरह की बुराई, विषमता और सांप्रदायिक भेदभाव का अंत भी चाहते थे। दूसरी ओर, भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद का बम और बम का दर्शन ब्रिटिश हुकूमत से मुक्ति पाने के साथ-साथ गरीबों, मज़दूरों, किसानों आदि के लिए आर्थिक समानता और सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने का दर्शन था। इस तरह हमारा स्वतंत्रता संग्राम एकांगी नहीं था, उसमें व्यापक, सर्वभौमिक और सार्वकालिक मूल्य निहित थे।
भारत एक नवीन और गौरवपूर्ण यात्रा तय कर चुका है। हम आज दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं, एक उभरती हुई आर्थिक महाशक्ति और एक ऐसा देश हैं, जो अपनी संस्कृति और नई तकनीक का एक साथ उपयोग कर रहा है। मगर स्वतंत्रता के साथ यह भी, कि चुनौतियों का स्वरूप भी बदल गया है।
अब दुनिया अनुभव करती है कि आज़ाद भारत में हमें उन्हें जुटनी होगी, उत्पादन, चिकित्सा, संचार, विज्ञान-तकनीक के क्षेत्रों में नवाचार, ताकि हम बदलते हुए समय के साथ तालमेल बिठाकर विकास की मुख्यधारा में रह सकें। पर एक बात स्पष्ट है, कि स्वतंत्र भारत में सबसे बड़ा संघर्ष आज भ्रष्टाचार, असमानता और गरीबी के खिलाफ है। एक देश के रूप में हम दूसरे देशों की तुलना में काफी तेजी से आगे बढ़ रहे हैं, पर यह गति तभी सार्थक है जब इसके साथ हम स्वतंत्रता की रक्षा का अर्थ अपने स्तर पर जिम्मेदारी निश्चित करें। यह केवल अधिकार नहीं, बल्कि जिम्मेदारी एवं दायित्वों की समझ भी है।
आज दुनिया विकास, संचार और तकनीक के मामले में जितनी तेज़ और जिस तेज़ रफ्तार से बढ़ रही है, वह कई बार हमें दिख नहीं पड़ता कि हम कितना कुछ खो रहे हैं जबकि यह सब कुछ हमें नई चुनौतियों का सामना करने को मजबूर कर रहा है। यह सच है, कि आज़ादी की प्राप्ति के बाद हम जो जीवन चाहते थे, वह तो हमें मिला नहीं, लेकिन कोई भी समस्या का समाधान निकटतम दिखाई नहीं देता। उल्टा सभ्यता में ही नई समस्याओं का जन्म हो रहा है।