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चित्रकूट का संदर्भ और मेरे कुछ अनुभव

चित्रकूट के कर्वी गांव से आई खबर बेहद शर्मनाक है। एक मीडिया संस्थान ने खुलासा किया है कि वहां नाबालिग लड़कियों के साथ बलात्कार और कई तरह से यौन उत्पीड़न होता रहा है। वे बच्चियां पत्थर खदानों में काम करने वाली बाल मजदूरिनें हैं, जिन्हें एक-एक रात में कई ठेकेदारों और बिचौलियों की हवस का शिकार होना पड़ता था। वे सौ से दो सौ रुपयों तक में अपना शरीर बेचने को मजबूर थीं। मैंने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी से निवेदन किया है कि वे एक निष्पक्ष उच्च स्तरीय जांच कराएं। ताकि पूरी सच्चाई सामने आ सके और दोषी पाए जाने वाले लोगों को कानून के तहत सख्त और शीघ्र सजा दी जा सके।


टीवी चैनल की रिपोर्ट में एक बात तो साफ देखी जा सकती है कि जिनके बारे में बात हो रही है वे बेहद गरीब और वंचित परिवार से हैं। क्या ग़रीबी और ग़ैरबराबरी अपने आप में हिंसा और अपराध नहीं हैं? नए भारत के सपने में ढेर सारी अच्छी योजनाएं और कार्यक्रम शामिल हैं। पिछले कुछ सालों में पीड़ित और उपेक्षित बच्चों के लिए ढेरों अच्छे कानून बने हैं। इनका श्रेय केंद्र की मौजूदा सरकार को जाता है। लेकिन यदि इन योजनाओं और कानूनों के तहत देश के सभी बच्चों को आजादी, सुरक्षा, स्वास्थ्य और शिक्षा नहीं मिलते, तो इसके लिए कोई तो जिम्मेदार होगा? क्रियान्वयन और नतीजे की जवाबदेही सुनिश्चित किये बगैर कोई व्यवस्था ठीक से कैसे चल सकती है?


मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में पड़ने वाला बुंदेलखंड इलाका देश के सबसे पिछड़े और गरीब इलाकों में से एक है। मेरे पूर्वज बुंदेलखंड से ही हैं। मैं खुद उस इलाके से अच्छी तरह परिचित हूं। मैंने वहां कोल, शहरिया, सौर और दूसरी जन जातियों में व्याप्त भयंकर गरीबी और भुखमरी देखी है। आपको देश के हर हिस्से में निर्माण कार्यों में लगे बुंदेलखंडी प्रवासी मज़दूर मिल जाएंगे, जिनमें से कई बंधुआ मज़दूरी और ट्रेफ़िकिंग के शिकार हैं। हमारे संगठन के कोषाध्यक्ष लक्ष्मण मास्टर और बाल आश्रम के प्रधान शिक्षक राम कृपाल उन्हीं में से हैं, जिन्हें हमने 35-36 साल पहले हरियाणा की पत्थर खदानों से आज़ाद करवाया था। हमने बुंदेलखंड में बीसियों सालों से गैर-कानूनी तरीके से चल रहीं पत्थर खदानों में से कई बार बंधुआ बना कर रखे गए परिवारों को मुक्त कराया है और कानूनी लड़ाईयां लड़ी हैं। खदान माफिया के साथ स्थानीय राजनेताओं, अफसरों और पुलिस की मिलीभगत के दंश को भी देखा और भोगा है।


चित्रकूट की घटना पर किये गए मेरे एक ट्वीट के उत्तर में पुलिस की ओर से एक बयान भेजा गया है, जिसमें वहां लड़कियों के साथ हुए यौन शोषण के आरोपों को पूरी तरह निरस्त किया गया है। ईश्वर करे, यही सच हो। लेकिन सैकड़ों मामलों में मेरा निजी अनुभव इस तरह की त्वरित प्रतिक्रियाओं से विपरीत रहा है। मैं उनकी चर्चा करने से पहले हाल की ही कुछ घटनाओं से जुड़े सवालों को याद दिलाना चाहूंगा। उन्नाव के दबंग विधायक को बचाने के लिए कितनी सारी झूठों का कवच तैयार किया गया था? बेटी के बलात्कारियों को सजा और इंसाफ की गुहार करने वाले पिता के हत्यारे को कौन पनाह दे रहा था? पीड़िता की हत्या की कोशिशें कैसे होती रहीं? यदि इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय संज्ञान न लेता, तो पीड़िता के साथ-साथ न्याय और सत्य की भी हत्या कर दी जाती।


मुजफ्फरपुर में बेटियों का आश्रय-गृह घिनौने यौन उत्पीड़न का अड्डा कैसे बना रहा? वहां पर इतने अर्से तक सिर्फ मासूम बच्चियों का ही नहीं, कानून, संविधान और मानवीय मूल्यों के साथ बलात्कार कैसे होता रहा था? क्या कठुआ में आठ साल की बच्ची के बलात्कारियों और हत्यारों को बचाने में प्रशासन, मीडिया और राजनेताओं ने जी-जान नहीं लगा दिये थे? क्या यह सब कुछ उनकी लापरवाही, संवेदनहीनता, निकम्मेपन या मिलीभगत के बगैर संभव था, जिन्हें कानून और नागरिकों की हिफाज़त की जिम्मेदारी सौंपी गई है?


सन 2004 की बात है। मैं अपने कुछ कार्यकर्ताओं के साथ उत्तर प्रदेश के गोण्डा जिले में चल रहे एक सर्कस से गुलामी और दुर्व्यापार की शिकार कुछ नेपाली बच्चियों को मुक्त कराने गया था। वहां के जिलाधिकारी, उप जिलाधिकारी और थानाधिकारी तो यह मानने तक को तैयार नहीं थे कि उस सर्कस में कोई लड़की भी काम करती है। जबकि हमारे साथ में बच्चियों के रोते-गिड़गिड़ाते माता-पिता भी थे। जैसे-तैसे वे अधिकारी छापामार कार्रवाई के लिए तैयार हुए थे।


एसडीएम और पुलिस अधिकारी एक साजिश के तहत हमें सर्कस के अंदर ले गए। तब तक ज़्यादातर लड़कियां गायब कर दी गई थीं। जो मौजूद थीं, उनसे मालिक ने डांट कर पूछा, ‘तुम में से किस-किस के साथ ज़ोर ज़बरदस्ती होती है?’ लड़कियों ने न में सिर हिला दिया। मजिस्ट्रेट और थानेदार दूर खड़े रहे। जब मैंने इस तरह बयान दर्ज करने पर एतराज किया तो मालिक ने अपनी पिस्तौल लोड करके मेरी छाती पर तान दी। संयोग से एक मीडिया चैनल पूरी घटना रिकार्ड कर रहा था। थानेदार ने सबके सामने बड़ी बेशर्मी से इस बारे में मालिक को इशारा कर दिया। वह हमें छोड़ कर पहले कैमरामैन पर टूट पड़ा। हम इधर-उधर भाग गए। मुझ पर गोली तो नहीं चल सकी, लेकिन मालिक, मैनेजर और सर्कस के कर्मचारी हमारी जान लेने के लिए लोहे के सरिये आदि लेकर टूट पड़े। मेरा बेटा भुवन और मैं बुरी तरह घायल होकर खून से लथपथ सड़क पर गिर गए। एक राहगीर ने हमें अपनी कार से लखनऊ के अस्पताल तक पहुंचाया।


घटना के सुर्खियों में आ जाने से सरकार ने तत्काल एक जांच कमेटी बैठा दी। कमेटी ने रातों रात बड़ी मेहनत करके दूसरे दिन रिपोर्ट भी जारी कर दी। उसमें खुलासा किया गया था कि सर्कस में बच्चे काम नहीं करते थे। कैलाश सत्यार्थी खुद अपना सर्कस खोलना चाहता है। उसने सर्कस मालिकों से कुछ कलाकार मांगे थे। मना करने पर वह बाल मजदूरी के बहाने जबर्दस्ती कलाकारों को अगवा करने के किए सर्कस में घुस आया। उसने सर्कस वालों पर हमला भी किया था और सब मीडिया रिपोर्टें झूठी हैं।


आखिरकार, हम हाई कोर्ट की मदद से 24 लड़कियों को मुक्त करा पाने में सफल हो गए थे। फिर भी वे बच्चियां इतनी डरी हुई थीं कि एक के अलावा उनमें से किसी ने मुंह नहीं खोला। कई दिनों के बाद हमारे मुक्ति आश्रम में उन्हीं में से एक 15 साल की बेटी ने जो कहा वह कानों में पिघले हुए गरम शीशे की तरह जिंदगी भर के लिए घाव कर देने जैसा था। वह बोली, ‘आप लोग जिंदगी में एक बार मरते हैं, लेकिन हम हर रोज कई-कई बार मरे हैं। सर्कस में अच्छा प्रदर्शन करने पर इनाम मिलता है और ज़रा सी गलती होने पर सजा मिलती है। लेकिन दोनों एक ही होते हैं। हमें ज़बरदस्ती मालिक या बाहरी लोगों के साथ बिस्तर पर सोना पड़ता है।’


इसी तरह एक बार केरल के एक सर्कस में मालिकों से भयभीत एक बेटी ने कई सालों से उसकी तलाश में भटक रहे अपने पिता को पहचानने से इंकार कर दिया था। उसी क्षण वह अपनी सुध-बुध खोकर पागल हो गई थी और पिता बेहोश होकर गिर पड़ा था। पीड़िताएं मालिक से तो आतंकित रहती ही हैं, वे पुलिस या किसी बाहरी व्यक्ति पर भी भरोसा नहीं करतीं। मैं अस्सी के दसक में बिहार के सिंहभूमि जिले में ईंट के भट्ठों से करीब 50 बच्चियों, किशोरियों और महिलाओं को मुक्त कराने गया था। हमारे संगठन की एक आदिवासी कार्यकर्ता लारो जोंको उन्हें ग़ुलामी और यौन शोषण से छुड़ाने का प्रयास करती रही थीं, जिसके परिणाम स्वरूप प्रशासन ने एक जांच भी कराई थी। उसमें पाया गया था कि पूरे इलाके में कोई ईंट भट्ठा नहीं चलता है। पुलिस और प्रशासन के कई लोग वहां चल रहे नारकीय धंधे में शामिल थे। दरअसल वे सभी भट्ठे गैर-कानूनी थे।


आख़िरकार, हमने आधी रात में एक ट्रक ले जाकर वहां से उन मजदूरिनों को निकाल लिया। 14-15 साल तक की कुछ गर्भवती लड़कियों ने हमें बताया था कि उन्हें सिर्फ एक रंगीन चोली और चड्ढी के लालच में पश्चिमी बंगाल के गांवों से बहला-फुसला कर लाया गया था। वे अगर लौटने की कोशिश करतीं, तो ठेकेदार उन्हें मार देता। और घर लौटने पर भूख से मरना पड़ता। एक बेटी ने अपनी पीड़ा को बयां करते हुए कहा था, ‘हमने पहले कभी अंदर के कपड़े नहीं पहने थे। उन्हीं लोगों ने पहनाना सिखाया, ताकि वे हमारे शरीर को नोंच-नोंच कर उन्हें उतार सकें। फिर भी पेट में भात होगा, तभी तो जिंदा रहेंगे।’


ऐसी कई घटनाएं अलग-अलग प्रांतो में भिन्न-भिन्न राजनैतिक पार्टियों की सरकारों के समय की हैं। तब और बातों के अलावा यौन शोषण, बलात्कार और दुर्व्यापार जैसे अपराधों के खिलाफ उतने अच्छे कानूनी प्रावधान नहीं थे, जो आज हैं। फिर भी हमारी बेटियों को न्याय और सुरक्षा क्यों नहीं मिल पा रही? हम सन 2020 के भारत को पहले की तरह कैसे चलने दे सकते हैं? सदियों से शोषित, पीड़ित और वंचित इंसानों के लिए सम्वेदना या मानवीय गरिमा बहुत दूर की बात है। असलियत यह है कि बच्चों का शारीरिक, मानसिक, आर्थिक और यौन शोषण करने वाले अब भी यही मानते हैं कि वे इसके लिए ही बने हैं। अपराधियों की निडरता और दुस्साहस, इस बात का सबूत है कि कानून के रखवालों के मन में भी अदालत के लिए सम्मान या डर नहीं है। प्रशासन में बैठे कुछ लोग कितने भी असंवेदनशील क्यों न हों, कानून और न्याय व्यवस्था के प्रति उनकी जवाबदेही को कैसे नकारा जा सकता है? दूरदर्शी राजनैतिक नेतृत्व को जन कल्याण की योजनाओं की सफलता और कानून के पालन के लिए जवाबदेही की व्यवस्था और संस्कृति का निर्माण करना होगा।


इस तरह के मामलों में न्याय का रास्ता कई दुरूह ख़ंदकों और खाइयों से होकर गुजरता है। उनमें पीड़ितों की गरीबी, भुखमरी, लाचारी, बेबसी, सामाजिक व सांस्कृतिक भेदभाव व प्रवंचनाएं, भविष्य की चिंताएं व अनिश्चितताएं, शोषणकर्ताओं का खौफ या लालच, कानून के रखवालों के प्रति अविश्वास तथा उनकी अपराधियों के साथ सांठगांठ और इंसाफ मिलने में देरी जैसे अनेकों व्यवधान शामिल हैं। इन बातों का ध्यान रखे बग़ैर इंसाफ़ की मंज़िल नहीं पायी जा सकती। हमारा अनुभव है कि जब-जब उच्च न्यायपालिका ने खुद आगे बढ़ कर करुणामय न्यायिक प्रक्रिया को अंजाम दिया है, तब-तब संविधान निर्माताओं के सपनों की रक्षा की संभावनाएं बढ़ी हैं। जिनका बचपन छीना जा चुका था या बलात्कार हुए, अथवा हत्याएं हो चुकी हैं, उन्हें नैसर्गिक न्याय मिल पाना असंभव है, लेकिन अपराधियों को सजा और अपराधों की रोकथाम में मदद जरूर मिली है। हालांकि हर मामले में यह हो पाना व्यवहारिक भी नहीं है।


बच्चों या महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए बनाई गई सरकारी संस्थाओं और आयोगों को निष्पक्ष बनाना तो मुश्किल है, परंतु जवाबदेह जरूर बनाया जाना चाहिए। उनमें बैठे व्यक्तियों को यह नहीं भूलना चाहिए कि ओहदे, सुविधाएं और सरकारें आती जाती रहती हैं, लेकिन बचपन दुबारा नहीं लौटता और न ही उसे बचाने के अवसर और अधिकार बार-बार मिलते हैं। कुछ असरदार लोग लीपापोती करके भले ही अपना तात्कालिक हित साध लें, लेकिन इतिहास उन्हें राष्ट्र का दूरगामी अहित करने का दोषी जरूर ठहराएगा। आज जिस पीढ़ी के साथ नाइंसाफी हो रही है, वह भी तो एक दिन हमारी जगह लेगी। तब क्या वह हमें श्रद्धा और सम्मान से याद कर पाएगी? जो लोग कर्मफल में भरोसा करते हैं उन्हें तो ज्यादा ही सचेत रहने की जरूरत है।


राजनैतिक पार्टियों के पास फायदे-नुकसान का गुणा-भाग करने के लिए तो ढेर सारे मुद्दे हो सकते हैं, लेकिन करुणामय राजनीति का निर्माण करने का सबसे असरदार तरीक़ा है, मिलकर तथा ईमानदारी से देश के बचपन को बचाना। यदि एक भी बच्चे को ग़ुलामी और यौन उत्पीड़न का शिकार होना पड़े, तो पूरे देश के लिए शर्म की बात है। वे बच्चे संख्या नहीं हैं, भारत माता की संतानें हैं। ईश्वर का सबसे खूबसूरत तोहफा हैं। ये हमारे बच्चे हैं।


चित्रकूट के मामले में यदि मुख्यमंत्री स्वयं पहल करें तो बहुत दूरगामी और व्यापक परिणाम निकल सकते हैं। प्रदेश में कहीं पर भी बच्चों के साथ दुराचार करने वाले डरेंगे और सरकार में पीड़ितों का भरोसा बढ़ेगा। उच्चस्तरीय निष्पक्ष जांच कराने में भी सरकार का फ़ायदा है। अगर मीडिया रिपोर्ट झूठी पायी जाती है तो सरकार की जीत है। लेकिन सच पाए जाने पर यदि दोषियों को सख़्त सजा दे दी जाए, तो उसकी और भी बड़ी जीत है। क्योंकि वह शासन में न्याय की, और राजनीति में नीति की विजय होगी। सत्य को स्थापित करने और स्वीकार करने के साहस से ही राजनैतिक नेतृत्व, नैतिक नेतृत्व में बदलते हैं।

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