top of page

BLOG

घर लौटने को बेताब भाग रहे भाई-बहिनों के नाम

Updated: May 22, 2020


खून से सनी रोटियों के साथ चिपकी पड़ी हैं जो रेल की पटरियों पर, वो मेरी उंगलियां हैं बड़ी मेहनत से कमाई थीं ये रोटियां लंबे सफ़र के लिए बचाई थीं ये रोटियां रोते-रोते मुझे छोड़कर मां भूखी सो पाई होगी? उसने तो बांधकर रख दी थी पूरे आटे की रोटियां शहर तक के मेरे लंबे सफ़र के लिए नहीं मालूम था कुछ रास्ते एकतरफा होते हैं मां के आंसुओं से कहीं ज्यादा, बहुत ज्यादा तकलीफदेह थी उसकी खांसी और सूखती काया बहुत रुलाता था भूखी गायों का रंभाना शेरू की असमय मौत और साहूकार का रोज-रोज गरियाना पिता के हाथों खोदे गए मगर अब सूखे पड़े कुंए में यूं ही बार-बार झांकना बहुत रुलाता था संकट एक कहीं से आया और मुझे एहसास दे गया मेरे और शहर के सपने अलग-अलग हैं मेरे और उनके अपने भी अलग-अलग हैं बहुत हो चुका, लौट पड़ा था उसे पकड़ने छूट गया था जो अपने घर पर मेरी मां को मत बतलाना जो देखा तुमने पटरी पर कहना, कैसे मर सकता है जिसकी नज़र उतारी थी तूने उधार की राई लेकर ? बोल सको तो सच कह देना ईंट-ईंट, पत्थर -पत्थर में बसता है अब तेरा बेटा बसता है वो हर मकान में, मंदिर-मस्जिद गिरजाघर में

देख रहे हो कुछ भी अपनी आंखों से हाथों से जो कुछ भी तुम छू सकते हो उन सब में मैं हूं- मैं अब भी ज़िंदा हूं मेरे सपने मरे नहीं हैं, फिर मैं कैसे मर सकता हूं कायनात जब तक ज़िंदा है, मैं ज़िंदा हूं मरते वो हैं जिनके सपने मर जाते हैं - कैलाश सत्यार्थी

1,579 views0 comments

Recent Posts

See All

Comments


bottom of page